स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब राष्ट्रपति पद के लिए दोनों ही प्रत्याशी दलित हैं। भाजपा ने देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा करके विपक्ष को पूरी तरह चौंका दिया। प्रतिक्रियास्वरूप विपक्ष ने भी कोविंद के विरुद्ध पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को चुनाव में उतार दिया। कोविंद के नाम के एलान से पहले विपक्षी दल गोपालकृष्ण गांधी, शरद यादव और एमएस स्वामीनाथन के नामों पर चर्चा कर रहे थे। जैसे ही भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए दलित प्रत्याशी का नाम घोषित किया तो विपक्ष को भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मीरा कुमार के नाम का एलान करने पर विवश होना पड़ा।
साफ छवि, जमीन से जुड़े व्यक्ति, सौम्य स्वभाव के धनी, समाजसेवी, कर्मठ कार्यकर्ता, और संविधान-ज्ञाता रामनाथ कोविंद से मेरा परिचय तब से है जब मुझे उनके साथ वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यदि विपक्ष किसी दलित को राष्ट्रपति बनाने के लिए इतना ही गंभीर था तो वर्ष 2012 में उसे मीरा कुमार या किसी अन्य दलित का नाम क्यों नहीं सूझा? मतों के अंकगणित से स्पष्ट है कि राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों के प्रत्याशी की पराजय होगी। इस स्थिति में भी मीरा कुमार विपक्षी दलों की पहली पसंद तक नहीं थीं। उपरोक्त घटनाक्रम के बीच कुछ अन्य छोटी-मोटी घटनाएं भी सामने आई हैं जिनका सतही तौर पर कोई संबंध नहीं है, परंतु वे सभी कहीं न कहीं मौन सामाजिक क्रांति से उत्पन्न ऊर्जा से जुड़ी हुई हैं जिससे न केवल समाज में मौलिक परिवर्तन हो रहा है, बल्कि कई उपेक्षित जिंदगियां भी जीवंत हो रही हैं। परिणामस्वरूप देश रक्तहीन बदलाव के माध्यम से अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों से मुक्ति की ओर अग्रसर है।
दिल्ली से कई सौ किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश से एक खबर आई जो अपने आप में बहुत कुछ कहती है। कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआइ की राष्ट्रीय महासचिव एंजेलिका अरिबम इस बात से विचलित दिखीं कि देश में बुनियादी ढांचे से वंचित क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैसे एक स्कूल का संचालन कर रहा है और वहां के स्कूली छात्र ‘वंदे मातरम’ के साथ अभिवादन कर रहे हैं। आज देश भर में संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर, संस्कार केंद्र और विद्या भारती स्कूलों में मुस्लिम छात्रों सहित लगभग 34 लाख से अधिक नौनिहाल औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ अच्छा मनुष्य और भारतीय बनने के संस्कारों को ग्रहण कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश का एक दूरस्थ क्षेत्र जो शेष भारत से पूरी तरह जुड़ा नहीं है और जहां सुविधाएं भी बेहद सीमित हैं वहां की एक घटना का उल्लेख करते हुए अरिबम ट्विटर पर लिखती हैं, ‘जब मैं अपने मित्र के साथ सड़क पर पैदल जा रही थी तब एक छात्र ने हमारा नमस्ते के बजाय वंदे मातरम् के साथ अभिवादन किया।’ उनके अनुसार, संघ देश की नई पीढ़ी का ब्रेनवॉश कर उन्हे वंदे मातरम कहने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है जिसका उन्हें व्यापक सामाजिक संदर्भ में अर्थ तक नहीं पता। 
हिमाचल के उक्त प्रसंग से कांग्रेस के सेक्युलरवाद और संघ के तथाकथित सांप्रदायिक चरित्र का खुलासा होता है। इस विकृत मानसिकता के लिए चर्च और ईसाई मिशनरियों का ‘आत्मा का व्यापार’ और वामपंथियों का विषाक्त चिंतन मुख्य रूप से जिम्मेदार है। सदियों से भारतीय समाज में जातिभेद है। आज बौद्धिक स्तर पर छुआछूत को कोई न्यायोचित तो नहीं ठहराता, परंतु सामाजिक जीवन के कुछ आयामों में भेदभाव का दंश आज भी कायम है। औपनिवेशिक काल में जहां साम्राज्यवादी ब्रितानियों के सहयोग से ईसाई मिशनरियों ने देश में सामाजिक भेदभाव के शिकार लोगों का मतांतरण कर उन्हे शेष समाज के विरुद्ध खड़ा किया। वहीं स्वतंत्र भारत में वामपंथियों सहित देश के तथाकथित सेक्युलरिस्टों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से आत्मा का कुत्सित व्यापार आज भी पिछड़े व आदिवासी क्षेत्रों में फल-फूल रहा है। हिंसा से ओतप्रोत वर्ग संघर्ष मार्क्सवादी विचारधारा का आधार है। इसलिए देश में शोषितों-वंचितों के उत्थान के नाम पर वामपंथी जातीय संघर्ष की आग को जलाए रखने के लिए दलितों-आदिवासियों का ईंधन की तरह उपयोग करते है। नक्सली आंदोलन इसी विषाक्त चिंतन का मूर्त रूप है। यही कारण है कि कांग्रेस की युवा नेत्री को देश के दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्रों में वंदे मातरम् का उद्घोष खतरनाक लगा। क्या किसी कांग्रेसी नेता या अन्य स्वघोषित सेक्युलरिस्ट ने ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण और उससे उपजे अलगाववाद का कभी विरोध किया है?
यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज दलित और वंचित वर्गो में जिस सामाजिक परिवर्तन का संचार हो रहा है वह हमारे समाज के भीतर सदियों पहले शुरू हुई मौन क्रांति का ही परिणाम है। हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता सहित कई कुरीतियों के परिमार्जन के लिए सिख गुरुओं की परंपराओं से लेकर रामकृष्ण परमहंस, कबीर, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद विद्यासागर, राजा राममोहन राय, गांधीजी, डॉ. अंबेडकर, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, नारायण गुरु, ज्योतिबा फूले, वीर सावरकर, बाबा आम्टे, केशव कर्वे से लेकर समाज के प्रबुद्ध घटकों ने जनचेतना का संचार करते हुए संघर्ष किया। भारत में वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी प्रबुद्ध हिंदू समाज में आत्मग्लानि भाव के कारण संभव हुई है। रामनाथ कोविंद का आरएसएस और भाजपा से जुड़कर सार्वजनिक जीवन में दलित हितैषी और अन्य सामाजिक कार्यों का निर्वाह करते हुए राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनना इसी गौरवशाली परंपरा का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
यह हिंदू समाज में सामाजिक बुराई के विरुद्ध बढ़ती चेतना का ही परिणाम है कि भारतीय दलित वाणिज्य एवं उद्योग संस्थान यानी डिक्की में पांच हजार से अधिक छोटे-बड़े सफल दलित उद्यमी विद्यमान हैं। मोदी सरकार ने समाज के वंचित वर्गों में उभरते हुए उद्यमियों को रचनात्मक सहयोग देने के लिए स्टैंड-अप इंडिया जैसी कई योजनाएं भी शुरू की हैं। साथ ही अनुसूचित-जाति और अनुसूचित-जनजाति के उद्यमियों की आर्थिक सहायता हेतु सार्वजनिक क्षेत्रों की सवा लाख से अधिक बैंक शाखाओं को दिशा-निर्देश भी जारी किए है। यही मौन परिवर्तन समाज के हजारों-लाखों उपेक्षित युवाओं का भविष्य भी संवार रहा है। राजस्थान के भरतपुर में मजदूर के बेटे ने प्रादेशिक बोर्ड में 12वीं की परीक्षा में 98.2 प्रतिशत अंकों के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी तरह राजस्थान के ही भीलवाड़ा में निर्धन परिवार के बेटे का भी आइआइटी-जेईई में चयन हुआ।
यह बदलाव एक-दो मामलों तक ही सीमित नहीं है। पिछले कई वर्षों से देश में समाज के उपेक्षित युवा शेष समाज के सहयोग से नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। समाज में हो रहे स्वागतयोग्य परिवर्तन के लिए कौन जिम्मेदार है? यह सब हिंदू समाज के भीतर आत्मसुधार तंत्र के कारण संभव हुआ है। हालांकि इस दिशा में अभी बहुत किया जाना शेष है। देश के राष्ट्रपति पद के लिए दोनों प्रत्याशियों का दलित समाज से होना वर्गभेद के खिलाफ इस लड़ाई में अवश्य ही मील का पत्थर साबित होगा।