भारत के चौदहवें राष्ट्रपति के मनोनयन या निर्वाचन हेतु बहुमतधारी, भाजपा नीत, एनडीए की ओर से बिहार के वर्तमान राज्यपाल रामनाथ कोविंद का नाम घोषित कर दिया गया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह व देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘अभियान 2019’ का परिणाम हैं रामनाथ कोविंद। भारतीय राजनीति का ककहरा पढ़नें वाले किसी बच्चे को भी यह समझनें में देर न लगी कि नरेंद्र मोदी ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया है। लगभग एक वर्ष से घुटनों के बल चलनें को मजबूर देश का विपक्ष अब राष्ट्रपति चुनाव में औंधें मूंह लेटने की स्थिति में आ गया है क
उत्तर प्रदेश से आनें वाले रामनाथ कोविंद कई मायनों में सप्रंग से आनें वाले किसी भी संभावित राष्ट्रपति प्रत्याशी के नाम की अपेक्षा प्रारम्भिक दौर में दबावपूर्ण बढ़त बना चुके हैं। नमो के ‘अभियान 2019’ के प्रमुख चेहरे  कोविंद जाति से कोरी हैं। उत्तरप्रदेश में दलितों में चमार, जाटव व पासी के बाद कोरी सबसे ज्यादा संख्या बल वाली प्रभावशाली जाति है। भाजपा की नजर लंबे समय से मायावती के गैर जाटव-चमार दलित पर रही है और भाजपा 2014 और 2017 में इनका बहुत अधिक वोट लेने में भाजपा सफल रही है। एक बड़ा राजनीतिक सत्य है कि भाजपा की 2017 की उत्तर प्रदेश विधानसभा की विजय उप्र के पिछड़े समाज, गैर जाटव-चमार दलित और मुस्लिम महिला वोट के कारण हुई है। उत्तर प्रदेश विधासभा चुनावों के समय भाजपाई रणनीतिज्ञों ने इस बात पर पैनी नजर रखी कि 2014 कि तुलना में भाजपा किस किस वर्ग या जातीय समूह का कितना वोट प्रतिशत पा रही है या खो रही है। इस अध्ययनशील व सोशल इंजीनियरिंग से परिपूर्ण भाजपाई रणनीति का परिणाम यह रहा कि भाजपा ने 2014 में प्राप्त सवर्ण वोट को 2017 में और अधिक बढ़ाया और 2014 की तुलना में और अधिक पिछड़े, दलित जातीय समूहों का समर्थन भी हासिल किया। अब ‘अभियान 2019’ के लिए सवर्णों, पिछड़े वर्ग व दलितों के वोट बैंक में बड़ी और एकमुश्त सेंध लगानें की रणनीति के क्रियान्वयन का पहला कदम है रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाना। नरेंद्र मोदी व अमित शाह सदैव भावनाओं की नहीं अपितु मुद्दे, तथ्य, आंकड़ों व मैदानी सच्चाइयों की राजनीति करते हैं। सीधा सा तथ्य है कि भाजपा के अंदर मौजूद कई बड़े नामों में से किसी और का भी नाम को लेने से वैसी राजनैतिक व रणनीतिक बढ़त नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को नहीं मिल पाती, जैसी कोविंद का नाम लाते से ही मिल गई है। 
मायावती की बड़ी पराजय व अवनति के पश्चात उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में एक बड़ा शून्य उत्पन्न हो गया है जिसे भरने के लिए और दलितों का नेतृत्व करने के लिए कोविंद को राष्ट्रपति बनानें जैसे कई कदम उठाने होंगे, जिसके लिए अमित शाह की भाजपा कृतसंकल्पित दिखाई दे रही है। यह अतिशयोक्ति लगेगी किन्तु यह सच है कि मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा 2019 में 400+ की रणनीति पर कार्य कर रही है। कोविंद उस अभियान का एक चरण मात्र हैं और निस्संदेह यह चरण पवित्र व शुचितापूर्ण है, इसमें गलत कुछ भी नहीं है। यदि कोविंद के रूप में भाजपा को एक ऐसा चेहरा मिल गया है जो 40 वर्ष पूर्ण मोरारजी देसाई जैसे कठोर अनुशासित प्रधानमंत्री का निकटस्थ जिम्मेदार अधिकारी रहा हो, जिसनें अपनें दीर्घ राजनैतिक पारी में धन संपत्ति निर्माण के सामान्य चलन से स्वयं को दूर रखा हो, जिसनें दीर्घ समय तक दलित मोर्चों पर नेतृत्व किया हो किन्तु जिसकी भाषा व आचरण कभी सामाजिक समरसता के ढाँचे को चोटिल करनें वाली कतई न रही हो; तो यह भाजपा का भाग्य और उसका चल रहा उत्तम समय ही कहा जायेगा। 
भारत में राष्ट्रपति चुनावों में प्रत्याशियों के चयन का बेहद उजला व प्रतिष्ठाजनक इतिहास रहा है तो वहीं दूसरी ओर ज्ञानी जैलसिंह व प्रतिभा पाटिल जैसे नाम भी रहें हैं जिन्होनें राष्ट्रपति भवन की गरिमा को दीर्घकालीन चोटिल किया है। ज्ञानी जैलसिंह सिंह ने तो सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि मैं सार्वजनिक रूप से इंदिरा गांधी की चप्पलें भी उठा सकता हूँ. ठीक इसी भातिं प्रतिभा ताई पाटिल की सबसे बड़ी योग्यता ‘गांधी परिवार की वफादारी’’मात्र ही थी। इस दृष्टि से यदि हम देंखे तो रामनाथ कोविंद का नाम डा. राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, वेंकटरमण, अब्दुल कलाम, प्रणब मुखर्जी के जैसे गंभीर, विद्वान व भूमि से जुड़े हुए व्यक्तित्वों की सूचि में सहजता से सम्मिलित हो जाता है। विद्वान, कानूनविद, प्रशासनिक जानकार व संवेदनशीलता भरा सार्वजनिक जीवन रामनाथ कोविंद को देश के पिछले राष्ट्रपतियों की श्रंखला में एक सम्मानजनक स्थान पर विराजित कराता है।
रामनाथ कोविंद का नाम सामनें आनें पर कई लोगों ने यह प्रश्न उछाला कि अब तक तो किसी ने यह नाम देश भर में सूना ही नहीं था। तो फिर यहां सवाल यह भी पैदा होता है कि प्रतिभा पाटिल का नाम राष्ट्रपति पद के लिए सामने आने से पहले भला कितनें लोगों ने सूना था? कोविंद को दीर्घ प्रशासनिक अनुभव है। अपने सुदीर्घ वकालत के अनुभव की वजह से वह वर्तमान में भारतीय संविधान के मर्मज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। 12 वर्षों तक सांसद रहें हैं। राज्यपाल रहनें से संवैधानिक पद पर आसीन होने की गरिमा के वह पूर्व जानकार हैं। कोविंद के नाम पर यह आरोप लगाये जा रहे हैं कि उनकी योग्यताओं से अधिक उनके दलित होनें के तत्व को अधिक उभारा गया व जाति नाम से उनका परिचय कराया गया। यह कहने वाले स्पष्ट सुन लें व समझ लें कि भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान व पितृ संस्थान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि हमारे समाज ने दीर्घकाल तक अगड़े-पिछड़े के नाम पर जातीय अत्याचार किये हैं। संघ मानता है कि समाज का एक हिस्सा शोषित व दलित रहा है व समाज के इस हिस्से को उसका स्वाभाविक स्थान दिलाते तक अगड़े समाज को कुछ त्याग करनें ही पड़ेंगे। संघ की उद्घोषणा है कि जब तक समाज में जाति भेद व अगड़े-पिछड़े के भेद समाप्त नहीं हो जाते हैं, तब तक आरक्षण भी जारी रहना चाहिए। यदि ऐसे वैचारिक तत्व से पली-बढ़ी भाजपा कोविंद की जाति बताकर समाज के पिछड़े हिस्से को प्रेरणास्पद संदेश देना चाहती है तो इसमें गलत क्या है ?
राष्ट्रपति बनने वाले रामनाथ कोविंद के दलित होने का मुखर संदेश भारतीय समाज में ताकि पिछली सदियों में हुए जातिगत शोषण के विरुद्ध एक वातावरण बन सके व भारतीय समाज समरसता का नया सोपान चढ़ सके, यह कौन नहीं चाहेगा?