आज की राजनीतिक गोलबंदी एवं सत्ता की राजनीति के केंद्रीय शब्द हैं ‘अस्मिता की चाह और ‘विकास। जब ‘अस्मिता की चाह पर चर्चा होती है तो सामाजिक एवं राजनीतिक अस्मिता की बात होती है, परंतु किसी भी सामाजिक समूह के ‘अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया में ‘धर्म की क्या भूमिका होती है, इस पर हम न तो संवेदनशील हैं और न ही सजग। जब भी राजनीतिक दल दलित, वनवासी एवं वंचित समूहों की अस्मिता को समझकर उस पर अपनी राजनीतिक कार्ययोजना बनाना चाहते हैं तो उसमें उनके भीतर बैठी ‘धार्मिक सम्मान की चाह को नजरअंदाज कर देते हैं। दलित एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों पर शोध करते हुए हमने पाया है कि उनमें ‘धार्मिक अस्मिता एवं सम्मान की चाह सामाजिक सम्मान की चाह में ही अंतर्निहित है। उनके लिए समाज में सम्मान का मतलब धार्मिक स्थान (स्पेस) में बराबर हिस्सेदारी भी है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक स्थान की चाह आज जगी है और पहले नहीं थी, बल्कि यह तब से ही पैदा हुई जबसे उनमें अस्पृश्यता के एहसास का उद्भव हुआ। अस्पृश्यता से मुक्ति का संबंध उनके लिए रोटी-पानी एवं हिंदू धर्म में बराबरी की चाह से ही जुड़ा रहा है। शायद इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने महाड़ सत्यार्ग्रह एवं मंदिरों में प्रवेश जैसे आंदोलन शुरू किए थे। न केवल आंबेडकर ने, बल्कि आर्य समाज एवं आज के अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों ने भी दलितों के लिए मंदिर प्रवेश जैसे आंदोलनों की वकालत की। इसी क्रम में कुछ समय पहले तरुण विजय के नेतृत्व ने उत्तराखंड के एक मंदिर में दलित प्रवेश आंदोलन को भी देखा जा सकता है।

महात्मा गांधी ने दलितों में निहित हिंदू धर्म में उनके सम्मान को समझा था और इसके लिए अनेक प्रयास भी किए थे। उसके बाद आर्य समाज के प्रयासों का एक केंद्रीय तत्व दलित, अस्पृश्य एवं वंचितों की धार्मिक अस्मिता का निर्माण कर उन्हें वैदिक संस्कृति से जोड़ते हुए सम्मान दिलाना था। 1920 के आसपास स्वामी अछूतानंद का आदि हिंदू आंदोलन दलितों को धार्मिक अस्मिता प्रदान करने का ही प्रयास था। हमें यह समझना होगा कि ऐसे समूहों को रोटी के साथ ही धार्मिक स्थान भी चाहिए। ऐसा धार्मिक स्थान जहां उन्हें बराबरी का एहसास हो, दैनंदिन जीवन के संघर्षों और टकराहट को झेलने के लिए आध्यात्मिक एहसास तो हो ही, बराबरी पर टिके हुए ऐसे भाईचारे का भी एहसास हो जो उन्हें दैनंदिन जीवन एवं समाज में नहीं दिखाई पड़ता। उन्हें ऐसे धार्मिक स्थान की जरूरत है, जहां वे अपने दुखों से उबरने की कामना करते हुए अपने देवता के समक्ष रो सकें। कितना दुर्भाग्य है कि हमने समाज में उन्हें ‘रोने का स्थान' भी नहीं दिया। अगर कभी आप बनारस में लगने वाले रविदास मेले में जाएं तो रविदास की मूर्ति के सामने लाइन में लगे तमाम महिलाएं-पुरुष अश्रुपूर्ण नेत्रों से रविदासजी की मूर्ति पर सिक्कों से लेकर सोना फेंकते दिखाई देंगे। दलितों में जो समूह आर्थिक रूप से मजबूत भी हो गया है, उन्हें भी धार्मिक स्थान एवं सम्मान की चाह है। रविदास मेले में आपको रोटी-प्याज खाते गरीब के साथ-साथ कोट-टाई पहने आॅस्ट्रेलिया के एनआरआई भी खासी तादाद में मिल जाएंगे।

 

कबीर पंथ, रविदास पंथ, शिवनारायण पंथ ऐसे ही ‘धार्मिक स्थान हैं, जिन्हें उपेक्षित समूहों ने अपने ‘दुख की पुकार के लिए, बराबरी की चाह एवं सामाजिक सम्मान की आकांक्षा से विकसित किया है। दलितों में छिपी इसी चाह को समझते हुए कांशीराम और मायावती ने दलित जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए दलित समूहों के संतों और गुरुओं को सम्मान देने की रणनीति पर लंबे समय तक कार्य किया। कबीर, रविदास जैसे संतों की मूर्तियां बनवाईं और उनके ‘स्मृति स्थल विकसित किए। शायद इतना स्थान भी दलित समाज के लिए काफी नहीं था। उन्हें और अधिक स्थान चाहिए था। उन्हें हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के भी मंदिर चाहिए। जो आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत हैं, उन्हें धार्मिक तीर्थों और धार्मिक उत्सवों को खुलकर मनाने की भी छूट चाहिए। उनमें से अनेक ने बौद्ध धर्म को अपने धार्मिक स्थान के रूप में अपने लिए आविष्कृत किया ही है। साथ ही गांवों में रहने वाले तमाम दलितों को ‘अपने कुलदेवता पूजने की भी छूट चाहिए। पहले जहां खेतों-बागों में पीपल के पेड़ के नीचे मिट्टी के चबूतरे पर मूर्ति रखकर पूजा की जाती थी, वहां अब छोटे मंदिर विकसित होने लगे हैं। जैसे-जैसे गांवों में दलित-वंचित समूह आर्थिक रूप से थोड़ा बेहतर होता जा रहा है, वैसे-वैसे उन्हें भव्य मंदिर भी चाहिए। शायद इसी भाव की अभिव्यक्ति उनमें विकसित हो रही ‘मंदिर की चाह में प्रस्फुटित होती है।

जयापुरा बनारस के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गोद लिया गांव है। वहां मुसहर जाति की एक बस्ती है, जिसका नाम ‘अटलनगर रखा गया है। उसके प्रवेश पर ही पेड़ के पास एक छोटा मंदिर बनाया गया है जिसमें ‘शिवजी के साथ ‘शबरी माता की एक छोटी मूर्ति लगाई गई है। गांव में मुहसर जाति के लोग बहुत दिनों से चाह रहे थे कि, ‘काश उनके लिए शबरी माता का मंदिर होता, लेकिन उनके पास ‘शबरी माता का एक छोटा मंदिर बनाने की न तो आर्थिक शक्ति है और न ही सामाजिक ताकत। आज वे इस मंदिर के बन जाने से बहुत खुश हैं और गर्व से कहते हैं कि यहां पचास कोस तक शबरी माता का दूसरा कोई और मंदिर नहीं है। ऐसे ही सपेरा जाति में ‘गोगा पीर का मंदिर बनाने की चाह है जो सांपों के देवता माने जाते हैं, परंतु इस प्रयोजन के लिए उनके पास भी आर्थिक-सामाजिक शक्ति का अभाव है। वे कहते हैं कि अगले चुनाव में नेताओं के समक्ष वे अपनी यह मांग रखेंगे।

देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों की अनेक जातियां हैं और सभी जातियों के अपने-अपने देवता और नायक हैं। इन देवताओं के मंदिर अथवा परिसर विकसित होने से उनमें आत्मसम्मान का भाव तो बढ़ता ही है, उन्हें अपना धार्मिक स्थान भी मिलता है, जहां वे अपने लोगों के बीच अपने तौर-तरीकों के पूजा-पाठ कर सकते हैं। बिहार में दुसाध जाति एक प्रभावी दलित जाति है। उनकी बस्तियों के पास आपको अनेक देवी-देवताओं के मंदिर तो दिखेंगें ही, वहीं चूहड़मल, सहलेस, राहु एवं गोरेया देव के मंदिर भी मिलेंगे। मैं सिर्फ यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि प्रत्येक दलित जाति के जातीय देवताओं के मंदिर हों। मेरा बस इतना कहना है कि अन्य सामाजिक समूहों की तरह दलित एवं वंचित सामाजिक समूहों में भी समाज में धार्मिक स्थान की चाह रही है और मौजूदा दौर में यह और बढ़ रही है। उन्हें भी धार्मिक बराबरी एवं अपने दुख-दर्द का बयान करने के लिए देवस्थान चाहिए। वे भी हिंदू धर्म के अनेक देवी-देवताओं में जिसे चाहें, उसे पूजने की छूट चाहते हैं। वे अपनी जाति से जुड़े कुलदेवता का भी मंदिर चाहते हैं। कुछ बौद्ध के रूप में रहना चाहते हैं, कुछ रविदासी, कबीरपंथी एवं शिवनारायणी के रूप में अपनी धार्मिक अस्मिता चाहते हैं। कई के जातीय देवता उनकी अस्मिताओं के महत्वपूर्ण प्रतीक चिह्न हैं। उनके लिए सम्मानित जीवन का तात्पर्य रोजी-रोटी की बेहतरी के साथ साथ ‘धार्मिक स्थान की प्राप्ति भी है और हमें उनकी यह आकांक्षा समझनी होगी।