सामाजिक समरसता दर्शन के सिद्धान्त के अध्ययन में समरसता विखण्डन की प्रक्रिया का विश्लेषण अत्यन्त सावधानी से किया जाना आवश्यक है। कभी-कभी सामाजिक व्यवहार अथवा लोकाचार में सामान्यरूप से जिन तथ्यों को प्रयुक्त होते देख हम उसे सामाजिक स्वीकृति मान लेते हैं, ऐसे अनेकानेक तत्व एवं तथ्य द्वेष भावना पर भी आधारित हो सकते हैं। हिन्दू लोक जीवन में इसके अनेक उदाहरण हैं। हिन्दू सामाजिक जीवन में समरसता विखण्डन प्रायोजित था।

 प्रकृति-पद्धति पर आधारित, नियोजित एवं संचालित हिन्दू जीवन-पद्धति का वैदिक काल समरसतापूर्ण था। उसमें किसी तरह के भेदभाव जैसी विषमता नहीं थी। उत्तर वैदिक काल की वर्ण-व्यवस्था में ‘जन्मना जायते शूद्र:’ की वैचारिकी एवं सभी वर्ण ‘सवर्ण’ माने जाते थे, क्योंकि वे वर्ण के साथ थे। मध्ययुग में विदेशी मुस्लिम आक्रामकों ने इस्लाम थोपने की नीयत से हिन्दुओं का घोर उत्पीड़न किया। दमन और अत्याचार के क्रम में उन्होंने स्वाभिमानी एवं धर्म के लिए लड़ने वाले लोगों का अपमान किया और जाति-धर्म में पवित्रता एवं अपवित्रता के चिन्तन द्वारा भेदभाव को बढ़ाया। परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में विखण्डन का क्रम आरम्भ हुआ। कालान्तर में अंग्रेजों ने भी ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति अपनाकर भेदभाव को बढ़ावा दिया। ईसाई मिशनरियों ने भी हिन्दू समाज को दिग्भ्रमित कर कमजोर करने का प्रयास किया। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित कम्युनिस्टों एवं जनवादी लेखकों ने जाति दुर्भावना का बारम्बार उल्लेख करके आपसी द्वन्द्व को विकसित किया। पाश्चात्य संस्कृति एवं वैश्विक बाजारवाद ने भी हिन्दू जीवन-पद्धति को प्रभावित किया। इन सभी प्रभावों का दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दू समाज में विखण्डन एवं विषमता का प्रादुर्भाव हुआ। प्रायोजित एवं षड्यन्त्रकारी प्रयासों ने मिलकर यहां की सामाजिक समरसता का विखण्डित किया। सामाजिक समरसता विखण्डन के नियोजित षड्यन्त्र एवं इस प्रकार के षड्यन्त्रों के उद्देश्यों का संक्षिप्त परिचय इन अध्याय में प्रस्तुत है।

 

समाजिक समरसता विखण्डन का स्वरूप एवं तात्पर्य

हिन्दू लोक जीवन पूर्णत: प्रकृतिगामी है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर जिस तरह प्राकृतिक उथल-पुथल होने लगता है और प्रकृति की समरसता विखण्डित होने लगती है, उसी प्रकार से हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत लोक जीवन के साथ अप्राकृतिक क्रियाएँ जुडकर उस पद्धति की समरसता को समाप्त और विखण्डित कर डालती हैं। सामाजिक समरसता विखण्डन की यह प्रक्रिया कई स्वरूपों में दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ-छुआछूत जैसी कुरीति का कोई प्राकृतिक अथवा वैज्ञानिक आधार नहीं है। अब अगर यह प्रायोजित रूप में हिन्दू लोक जीवन के व्यवहार में प्रयुक्त हो रही है, तो नि:सन्देह इससे सामाजिक समरसता तो क्षीण होती ही है, सम्पूर्ण समाज का विखण्डन भी सैद्धान्तिक रूप से होने लगाता है। इसलिए सामाजिक समरसता दर्शन में ऐसे तथ्यों का बहुत सामधानीपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए।

 

सामाजिक समरसता विखण्डित हुई है अथवा नहीं

यदि इसका अवलोकन करना हो, तो सर्वप्रथम यह देखना होगा कि हिन्दू लोक जीवन के सामाजिक नियमों, परम्पराओं एवं प्रथाओं में कोई प्रतिकूल परिवर्तन हुआ है अथवा नहीं। परिवर्तन यदि अनुकूल हुआ तो समरसता के विखण्डन का प्रश्न नहीं रहता, परन्तु परिवर्तन प्रतिकूल होने पर समरसता विखण्डन स्पष्ट दृष्टिगोचर होगी। वर्तमान समय में मध्ययुगीन आरोपित एवं नियोजित भेदभाव तथा पाश्चात्य संस्कृति द्वारा प्रभावकारी प्रतिकूल परिवर्तन से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के नियमों, मानकों, मूल्यों में अत्यधिक परिवर्तन हुआ है, जिसके कारण सामाजिक समरसता विखण्डित हुई है। छुआछुत, भेदभाव एवं तिरस्कार समाप्त करने के प्रयासों को आशातीत सफलता नहीं मिल पाई हैं। जातिवाद राजनीति में भी घुसपैठ बना चुका है। वोट की राजनीति में सामाजिक नियमों, परम्पराओं एवं प्रथाओं को भुलाए जाने की प्रवत्ति कार्य करने लगी है। इस तरह सामाजिक समरसता का विखण्डन बदलते हुए सामाजिक नियमों एवं मानकों में दृष्टिगोचन होता है।

हिन्दू समाज के प्रगाढ़ सामाजिक सम्बन्ध टूटकर बिखरने लगे हैं, जिनको देखकर यह अनुमान लगाया जाने लगा है कि हमारी सामाजिक समरसता में विखण्डन हो रहा है। हमारी भ्रातृ-भावना, वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिकी, अतिथि देवो भव, दया, करुणा, परोपकार एवं शरणागत की सुरक्षा जैसे समरसता के अनेकों सिद्धान्तों एवं विचारों में जंग लगने लगा है। हमारे सम्बन्धों में स्वार्थपरता की दुर्भावना आ गई है। एक-दूसरे को शोषण करने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है। लूटपाट की दुर्भावना ने धैर्य रूपी मानवीय एवं धार्मिक गुण पर मैली चादर डाल दी गई है। मधुर सम्बन्धों को छल-कपट की आशंकाओं ने विषैला बना दिया गया हैं। इस प्रकार सामाजिक समरसता विखण्डन का स्वरूप सामाजिक सम्बन्धों के टूटते रिश्तों में स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगा है। निजी स्वार्थों को लेकर पिता अपने ही पुत्रों पर आघात करने लगा है और पुत्र भी पिता के हत्यारोपी बन रहे हैं। भाई अपने ही भाई का गला रेतकर हत्या कर रहा है। इसके पीछे यदि गहराई से देखा जाए तो मनुष्य में पश्चिम से आई भौतिकता एवं धनुलोलुपता ही मुख्य कारण है, जो अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आज सर्वाधिक आवश्यक समझी जा रही है।

हिन्दू सामाजिक मूल्यों में निरन्तर आ रही गिरावट से भी पता चलता है कि सामाजिक समरसता का निरन्तर दिखण्डन हो रहा है। आज के युग में निजी मूल्यों को ही समाज पर थोपने का प्रयास चल रहा है। ‘अहम् एकम् द्वितीयो नास्ति’ की भावना ने बाहुबलियों का महासंगा्रम छेड़ रखा है। भयंकर मार-काट के मूल्यों पर अनेक गोदें सूनी हो रही हैं। वैधव्यता में वृद्धि हो रही है। माँग के सिन्दूर उजड़ रहे हैं। गहन समीक्षा करने पर यह पाया जा रहा है कि हिन्दू लोग जीवन को समरस बनाए रखने के लिए पूर्व में स्थापित सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इत्यादि मूल्यों में प्रतिकूलनता आई है और वे वर्तमान समाज के लिए अनुकूल नहीं रह गए हैं,। अतएव समरसता के लिए पुन: हमें अपने प्राचीन मूल्यों को स्थापित करना होगा।

सामाजिक समस्याओं में ने केवल वृद्धि हो रही हैं, अपितु उनकी जटिलता में भी अधिकता दिखलाई दे रही हैं। ज्यों-त्यों यह वृद्धि होती जाएगी, समरसता का उतना ही अधिक विखण्डन होता जाएगा। समस्याओं की संख्या में वृद्धि का कारण है, मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि होना। उपभोग के क्षेत्र में वृद्धि के साथ ही उत्पादों की आपूर्ति व्यवस्था में आशातीत सुधार और वृद्धि का न होना, समस्याओं को जन्म देता है और सन्तुष्टि से परे रह जाने वाली समस्याएँ जब जटिल हो जाती हैं तो सामाजिक वातावरण अशान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता विखण्डन स्वाभाविक हो जाता है। क्योंकि इस्लामिक आक्रान्ताओं तथा अंग्रेजी शासनकाल में सामाजिक एवं आर्थिक शोषण करके शासन व्यवस्था से टकराने वालों का दलन करके उन्हें दलित बनाया गया। उन दलितों की सामाजिक एवं आर्थिक दानों स्थितियाँ अत्यन्त दयनीय हैं। वर्तमान समय में यही स्थिति है। अतएव आवश्यकताओं में कमी करने से समस्याओं की संख्या में स्वत: कमी आ जाएगी और उनकी जटिलता भी समाप्त हो सकेगी। दूसरा उपाय यह है कि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समुचित व्यवस्था की जाए और उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम बनाया जाय कि वह अपने उपभोग के लिए उत्पादों का उत्पादन स्वयं कर सके। यह दूसरी अवस्था बहुत कठिन है। इसलिए पहले के लिए प्रयास किया जाना चाहिए।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता विखण्डन का जो स्वरूप हम देख रहे हैं, उसके लिए हमें सामाजिक विघटन के सभी लक्षणों एवं उनके पीछे उनके लिए उत्तरदायी कारकों पर ध्यान देना होगा। समाज में असन्तुलन का स्वरूप, व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति में उतार-चढ़ाव का स्वरूप, कर्तव्यों के प्रति उत्तरदायित्व का स्वरूप, सहयोग की भावना का स्वरूप, समाज के लोकाचारों एवं संस्थाओं के मध्य उत्पन्न संघर्ष का स्वरूप, एक संस्था के कार्यो का दूसरी संस्थाओं को स्थानान्तरण का स्वरूप, व्यक्तिवाद में वृद्धि का स्वरूप,एकता का अभाव एवं सामाजिक नियन्त्रण की शिथिलता का स्वरूप इत्यादि अनेक ऐसे स्वरूप हैं, जिनके सापेक्ष सामाजिक समरसता के विखण्डन का अवलोकन किया जा सकता है।