हो सत्ता का हस्तांतरण, वास्तविक सामाजिक परिवर्तन के लिए : डॉ. अम्बेडकर (भाग  3)

डॉ. नरेंद्र जाधव

इस संदर्भ में मुझे एक टिप्पणी अवश्य करनी चाहिए। यह कहना कि यह एक ऐसा दोष है जो जातियों और नस्लों में विभाजित है, और यह भी जब तक कि अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा को संविधान का हिस्सा नहीं बनाया जाता, तब तक यह एक एकीकृत स्वशासी समुदाय नहीं बन सकता, एक ऐसी स्थिति है जिस पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। लेकिन अल्पसंख्यकों को दिमाग में एक बात अवश्य ही रखनी चाहिए कि हालाँकि हम आज पंथों में बंटे और जातियों के द्वारा खंडित जरूर हैं। लेकिन हमारा आदर्श एक एकीकृत भारत है। जो भी अल्पसंख्यक समुदाय होने का दावा करता है, उसे इस आदर्श को सबसे आगे रखने  में चूकना नहीं चाहिए। ऐसा है तो इसका अनुसरण करते  हुए हरेक अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी सुरक्षा के उपाय तय करते वक्त यह अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए कि वे उस आदर्श के साकार होने के साथ विसंगत न हो। तमाम तरीकों से अपने बचाव पर जोर दें, क्योंकि जिस किसी से आप पीड़ित हैं-वह वास्तविक हैं, लेकिन आपके बचाव के उपाय इस तरह के नहीं हों कि वे फर्क को जारी रखेंगे। बल्कि यह हम सबकी इच्छा होनी चाहिए कि फर्क और फासले मिटें। निसंदेह बहुसंख्यक पर एक दायित्व है कि वे अल्पसंख्यकों के लिए बचाव के उपायों पर सहमति दें। लेकिन अल्पसंख्यकों के उपायों पर सहमति दें। लेकिन अल्पसंख्यकों के उपर भी बराबर का दायित्व बनता है कि वे ऐसे बचावों पर जोर न दें जो सबकी एकता के रास्ते को बाधित कर दे। इस दृष्टि से संयुक्त निर्वाचक मंडल और आरक्षित सीटों की योजना अवश्य ही पृथक् निर्वाचक मंडल की योजना से बेहतर घोषित की जानी चाहिए। यह वर्तमान वास्तविकताओं से मेल खाती है और भविष्य के आदर्श को साकार करने में भी मदद करती है।

एक अन्य मामला है जो बहिष्कृत वर्गों की सुरक्षा के लिए विशेष चिंता का विषय होना चाहिए। यह मामला सरकारी नौकरियों (लोक सेवाओं) में प्रवेश से जुड़े कानूनों को लागू करने की शक्ति कानून बनाने की शक्ति से कोई कम महत्त्वपूर्ण नही है और विधायक की भावना को प्रशासक की चालबाजी से बेकार नहीं किया जा सकता है, तो भी उसका उल्लंघन आसानी से किया जा सकता है। अकसर काम के दबाव अथवा परिस्थितियों की दिक्कतों के कारण कानून को काफी विवेकाधीन शक्ति प्रशासकीय विभागों के प्रमुखों के हाथों में छोड़नी पड़ती है। जन कल्याण काफी कुछ इस पर निर्भर करता है कि इस विवेकाधीन शक्ति का इस्तेमाल कितनी निष्पक्षता से किया जाता है। भारत जैसे देश में, जहां लोग सेवा में तकरीबन एक ही समुदाय के लोग छाए हुए हैं, यह बड़ा खतरा है कि इस विशाल विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग एक वर्ग को आगे बढ़ाने में किया जाए। इसके खिलाफ सबसे बढ़िया बचाव इस पर जोर देना है कि देश की लोक सेवाओं में बहिष्कृत वर्गों समेंत जातियों और नस्लों के समुचित मिश्रण को जगह दी जाए। हमें माँग करनी चाहिए कि लोक सेवा में कुछ प्रतिसत जगह बहिष्कृत वर्गों के लिए आरक्षित रखी जाए और संविधान में एक प्रावधान के जरिए इसकी गारंटी देने में कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसी सुरक्षा को आप छोड़ सकते थे, यदि देश  के भावी मंत्रिमंडल में बहिष्कृत वर्गों के प्रतिनिधित्व की कोई संभावना होती। लेकिन यह देखते हुए कि बहिष्कृत वर्ग हमेशा ही अल्पसंख्यक रहेंगे, इस बात की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। यह तथ्य और भी आवश्यक बना देता है कि आप इस तरह की गारंटी पर क्यों जोर दें।

 

बहिष्कृत वर्ग एवं  साइमन कमीशन

मैंने आपका ध्यान उन विविध सुरक्षा उपायों की ओर आकर्षित किया है, जिन्हें मैं सोचता हूँ कि हमें स्वशासी भारत के संविधान में अवश्य ही हासिल करना चाहिए। अब मै हमारे लिए  साइमन कमीशन की अनुषंसाओं  पर चर्चा करूँगा।

साइमन कमीशन ने निस्संदेह संवैधानिक सुरक्षा उपायों के लिए बहिष्कृत वर्गों के मामले पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया है। कमीशन ने बहिष्कृत वर्गों के हालात की सही तस्वीर प्रस्तुत करने की कोशिश की है, हालांकि यह किसी भी तरह से संपूर्ण नहीं है। उन्होंने सिर्फ स्कूलों और कुओं की दिक्कतों का जिक्र किया है। इन अभागे वर्गो की शिकायतों की लंबी सूची का ये सिर्फ एक छोटा हिस्सा बनाते हैं।  फिर भी यह अवश्य ही माना जाना चाहिए कि बहिष्कृत वर्गों की संवैधानिक सुरक्षा की जरूरतों को साइमन कमीशन द्वारा मोंटफोर्ड रिपोर्ट की तुलना में ज्यादा सही ढंग से साकार किया गया है। लेकिन जहाँ तक प्रतिनिधित्व के तरीके और हमारे प्रतिनिधित्व की शक्ति की बात है, तो मुझे यह कहते हुए दु:ख है कि साइमन कमीशन की अनुसंशाएं बहुत निराषाजनक है।

जैसा कि आपको पता है, इस समय बहिष्कृत वर्गों का प्रतिनिधित्व नामांकन द्वारा किया जाता है। हमसें से जिन लोगों को परिषद् में आपका  प्रतिनिधित्व करने को दुर्भाग्य प्राप्त हुआ है, वे आपको नामांकन के द्वारा प्रतिनिधित्व प्रणाली की बुराइयों के बारे में बताएंगे। और यह कहते हुए मुझे खुशी है कि साइमन कमीशन के समक्ष देश भर में हमारे लोगों द्वारा दिए गए सबूत में इस प्रणाली की सबने निंदा की। यह प्रणाली हमारे लोगों को अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए सर्वोंत्तम व्यक्ति चुनने की स्वतंत्रता से वांचित करती है, और यह हमारे नामांकित प्रतिनिधियों को काम करने की कोई आजादी नहीं देती है यह खेदजनक है कि साइमन कमीशन इस दुष्चक्रीय प्रणाली को खत्म नहीं करता है। यह अभी भी इससे चिपका रहता है और सिफारिश करता है कि यदि उपयुक्त उम्मीदवार चुनाव के लिए उपलब्ध न हों, तो राज्यपाल बहिष्कृत वर्गो के प्रतिनिधियों को नामांकित कर सकते हैं। इतना ही नही, साइमन कमीशन का सबसे अनचाहा प्रस्ताव है कि गवर्नर विधायिकाओं में बहिष्कृत वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ऐसे व्यक्तियों को नामांकित कर सकता है जो खुद बहिष्कृत वर्गों के नहीं है।

बहरहाल ये आरक्षित उपाय हैं, जिन पर हमें ज्यादा मगजमारी करने को जरूरत नहीं है। लेकिन साइमन कमीशन का मुख्य प्रस्ताव, मेरी राय में भी, समान रूप से अस्वीकार्य है। इसके अनुसार रिजर्व सीटों के साथ संयुक्त निर्वाचक मंडल की प्रणाली में चुनाव के द्वारा बहिष्कृत वर्गों का प्रतिनिधित्व किया जाएगा। अगर इस सिफारिश में और कुछ नहीं जोड़ा गया होता, तो इसने निस्संदेह हमारी मौजूदा स्थिति में बड़ी छलाँग लगाई होती। लेकिन इस प्रस्ताव में यह शर्त जोड़ दी गई है कि बहिष्कृत वर्गों का कोई भी उम्मीदवार तब तक चुनाव में खड़ा नहीं हो पाएगा, जब तक कि उस प्रांत का गवर्नर उसकी योग्यता को प्रमाणित न कर दे। ऐसी प्रणाली के अस्वीकार्य होने का कारण यह है कि यह चुनाव की प्रस्तावित प्रणाली को अभी प्रचलित नामांकन प्रणाली के काफी कुछ समान बना देती है और उनके बीच चुनने जैसा कुछ भी नही है और उस केस में, जिसमें गवर्नर एक निर्वाचन क्षेत्र में सिर्फ एक उम्मीदवार को प्रमाणित करने के लिए चुनता है, तो चुनाव प्रणाली व्यवहार में और कुछ नहीं बल्कि विशुद्र नामांकन प्रणाली बन जाएगी। इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि प्रमाणीकरण की प्रणाली कैसे काम करेगी, और इसे मंजूर करने  में किन तत्त्वों को ध्यान में रखा जाएगा। कमीशन सुझाव देता है कि गवर्नर को बहिष्कृत वर्गों के संघों के साथ परामर्ष कर या अन्यथा जैसा वह बढ़िया समझता है प्रमाणित करना चाहिए। दोनो ही मामलों में हमें सहमति नहीं जतानी चाहिए।  (जारी)